मंगलवार, 9 सितंबर 2025

तुम

सौहार्द से उठी माया का ही एक रूप हो,

आँचल में छुपी स्वार्थ की कपटी धूप हो।

जो मेरी आँखों में कभी टिककर देख न सका,
वो अपनी आँखों में काजल कैसे सजा पाएगा?

जिन लबों से मीठे झूठ थकते नहीं,
उन बातों पर भरोसा करना मेरा गुनाह कब हुआ?

तुम वही माया हो—
जो टिकती नहीं, जो ठहरती नहीं।

जिस दिन तुमने खुद को सच में ढूँढा,
तुम्हें अपना अस्तित्व खोखला लगेगा।

फिर ये रंग, ये रूप, ये नैन और चैन—
जिनकी मैं तारीफ़ करता आया हूँ, और करता रहूँगा,
वो बस मुझ तक सीमित रहेंगे।

कभी तुम खुद को इस खूबसूरती में देख न सकोगी,
क्योंकि तुम माया हो—
और माया ही बनी रहोगी।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

टिप्पणी: केवल इस ब्लॉग का सदस्य टिप्पणी भेज सकता है.