सोमवार, 1 नवंबर 2021

पहाड़ों से दूर हूं

अब चाय की प्याली गर्म,
और चाय ठंडी सी लगती है,
अब जो पहाड़ों से दूर हूं ।।

बहुत भीड़ सा लगता है,
एक कमरे में लेटा हुआ हू ।
पर कई लोगो से घिरा हुआ लगता है,
अब जो उन वादियों से दूर हूं ।।

धूप चिड़चिड़ी सी लगती है,
पानी फीका सा लगता है,
हवाएं जबरदस्ती सी लगती है ।
मैं धूप में छांव लेता,
सूरज को कभी कभी आंखे दिखा देता,
बड़ा ढीठ सा था मैं वहा ।
पानी और नदी सब एक ही है वहा ।
हवा मौज में होती है,
कब कहा छेड़ जाए,
बस अपनी मुस्कान ही गवाह है वहा ।
अब धूप, पानी, हवा, नदी और छेड़खानी,
सब दूर सा लगता है,
अब जो उचाइयो से दूर हूं ।।

सब है यहां,
मां – बाबा , भाई – बहन और दोस्त,
पर बहुत अकेला सा लगता है ।
खोजता हूं अपने सर पे मखमली टोपी,
जिसे मैं बड़े चाव से सजाता सजने के लिए,
उसके लिए जिसकी आंखे भोली और छोटी है ।
मैं ठंड में ठिठुरता और वो लंबे ‘शाल’ ओढ़े मुझपे हंस पड़ती,
एक सुर्ख हाथ मेरे गालों पे पड़ती और बोलती ठहरो जरा,
हाथ में एक प्याली जिसमे मीठी सी खुशबू और धुआं,
साथ बैठती और पीती ।
खिलखिला के पूछती "कहो ...आया मजा" ।
वो वादियों की रानी अब दूर है,
अब जो मैं हिमांचल से दूर हो ।।

मेरी पहाड़न
जो नदी, हवा, पेड़ो से बनी सी लगती है,
उचाइयों में बसी एक छोटी कद की मुस्कुराती और बहती सी लड़की ।
अलाव और हमबिस्तर हम,
कैसे भुल जाऊ उसके सुर्ख होठों की गर्मी,
नम आंखे और सुलगता बदन ।
उसने मुझे रातों में शोर सुनना सिखाया,
लंबे पेड़ो को गले लगना,
और शीत को गालों पे बिखेरना सिखाया ।
गोद में ठहराव सिखाया,
इश्क में इबादत सिखाया,
और रूह में खूबसूरत जीवन दिखाया
मुस्कुराहट, शरारत, इबादत सब भुला सा लगता है
अब जो मैं पहाड़न से दूर हूं ।।।


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